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यथार्थ का मूल्य

यथार्थ का मूल्य

          कदली के अंक उस कक्षा में सबसे अधिक आते थे। वह पढ़ने में तो कुशल थी ही, परन्तु व्यवहार में भी बहुत कुशल थी। जो अध्यापिकाएं उसे पढ़ाया करतीं, उनके आस-पास वह किसी न किसी बहाने चक्कर लगाया करती। सभी से उसने कक्षा से अलग व्यक्तिगत संमन्ध बना रखे थे। कभी किसी शिक्षिका की प्रशंसा करती, कभी किसी को घर के बगीचे के पुष्प उपाहार में ला देती, तो कभी कलैंडर आदि। नए वर्ष वह दीपावली पर वह शुभकामनाएं उससे पत्र भेजना भी न भूलती। परिणाम यह था कि शिक्षिकाएं उससे अच्छी तरह परिचित थीं। सभी उसकी प्रशंसा करती थीं।
       ऐसा न था कि कदली यह केवल दिखावे भर के लिए करती हो। उसके मन में अपनी शिक्षिकाओं के प्रति आदर था, श्रध्दा थी। वह थी ही व्यवहार कुशल। परन्तु इस बार वह अपनी श्रद्धा का कुछ अधिक ही प्रर्दशन कर रही थी। उसका कारण था, कांलेज का स्वर्ण पदक, जो इंटर कक्षा की सर्वश्रेष्ठ छात्रा को प्रतिवर्ष दिया जाता था।
कदली शिक्षिकाओं को प्रभावित कर इस वर्ष का यह पदक स्वयं पाना चाहती थी। जो छात्रा खेलकूद, पढ़ाई सांस्कृतिक कार्यक्रम, भाषण, अनुशासन आदि सभी गतिविधियों में श्रेष्ठ होती, उसे ही यह पदक दिया जाता। परन्तु कदली जानती थी कि निर्णायिकाएं तो शिक्षिकाए ही हैं। यदि वह उन्हें ही प्रभावित कर ले, तो थोड़ा उन्निस होने पर भी बात बन ही जाएगी।
 कदली की प्रतिव्दंव्दी छात्रा अचला। वह भी पढ़ाई में तेज थी और कांलेज की सभी गतिविधियों में भाग लेती थी, परन्तु उसका स्वभाव कदली से भिन्न था। वह शर्मीली लड़की थी, शिक्षिकाओं के आसपास चक्कर नहीं लगातीं थी। यघ्यपि मन ही मन वह शिक्षिकाओं का बहुत आदर करती थी, परन्तु कभी उसका प्रर्दशन न करती थी। गुरुजनों के सम्मुख जाते ही वह विनम्रता से झुक-सी जाती, कदली की भांति बातें न बना पाति।

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